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कविता

वैश्विक पूँजी व्यवस्था

माधव कौशिक


वैश्विक पूँजी व्यवस्था
और हम
कंगाल सारे।

शहर है कि सो रहा है
ओढ़ कर
चादर कफन की
आदमी ने तोड़ दी हैं
वर्जनाएँ
सब बदन की
साधकर चुप्पी
खड़े हैं
शब्द अब वाचाल सारे।

अस्मिता का प्रश्न पूछा
तो कहा,
उत्तर कई हैं
एक रावण के ना जाने
आज भी तो
सर कई हैं
एक विक्रम सत्य का है
और हम
बेताल सारे।

 


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